Saturday, February 28, 2009

और यूँ कड़ी बन गई...

(मधुकर राजपूत जी की आभारी हूँ जो उन्होंने हिन्दी में कैसे लिखूं बताया ...नई नई खिलाडी हूँ , यह जानकारी बहुत कामगार साबित हुई...धन्यवाद मधुकर जी.)

हरियाणा के एक गाँव में

डरी सहमी झिझकती सी एक लड़की को देखा

असम से आई थी

ओह्ह!! आई नही थी, लायी गई थी

बेटे की अंधी चाह ने

कितनी ही बेटियाँ मरवा दी

समय चाबुक मारता है

अब बेटे ही बेटे हैं

और बेटे पैदा करने को बेटियाँ नहीं

पैसा सब खरीद सकता है

मंगलसूत्र के लिए गला,बिस्तर के लिए देह,वंशज के लिए कोख

यह लड़की कुछ ऐसी ही खरीद थी

क्या विडम्बना है

इस चक्र में बलि हर बार औरत चढी

बिस्तर में भोगी गई

पर इच्छा जान कर नहीं

हर बार उम्मीद की गई

की कोख में चिराग जले

उम्मीद टूटी तो अँधेरा कर दिया

अँधेरा जो निगल गया कन्या भ्रूण को

गर्भ और गर्भ पात ने शरीर बंजर कर दिया है

पर तो क्या हुआ ? आख़िर में बेटा तो दिया है !

असम से जिसे लाया गया, वह भी औरत है

और उस जैसी ना जाने कितनी और

चावल खाने वाली,बाजरा खाती है

पति से रिश्ता देह का है

न उसका बोला कुछ समझती है

न उसे कुछ समझा पाती है

सात महीने के गर्भ के साथ

आँखें अपने गाँव के

नदी-नालों ,पेड़ के झुरमुट और घिरते बादलों को ढूँढती हैं

और यूँ फिर से वह उस चक्र की

एक कड़ी बन जाती है.

कुछ सवाल बाकी हैं ...

बचपन मैं सीखा था

राष्ट्रगान हमेशा गाना है,

कुछ भी हो शरीर का एक अंग भी नही हिलाना है

आरती चाहे कभी न गुनगुनायी हो

जन गन मन की तान पर रोम रोम गा उठता है

आज दिल में टीस उठती है

राष्ट्र गान पूछे जाने पर युवा 'वंदे मातरम' बताते हैं ,

बंकिम चंद्र उन्हें बंगाली फ़िल्मों के निर्देशक नज़र आते हैं,

'सारे जहाँ से अच्छा' की एक पंक्ति गाने में भरसक प्रयतन करते हैं,

और इन सब बातों में हमें समय न खोने की सलाह देते हैं

एक दिन फ़िल्म देखने गई थी,

युवाओं के परिचय के लिए

आजकल फ़िल्म से पहले राष्ट्र गान बजाया जाता है

देखा, एक महाशय मोबाइल पर दीन दुनिया की बातों में मशगूल थे

इतने कि उठना तो दूर चुप होना भी भूल गए

पति फौज में हैं और मैं उतनी ही फौजी,

देखा न गया

गान पूरा होते ही महाशय को कुछ ज्ञान दिया

माफ़ी मंगवाई और फ़िल्म चलवाई

बरबस उसी पल दिल में एक सवाल उठा,

आज यदि यह सिनेमा घर ताज बन जाए

तो क्या यह वही लोग हैं

जिनके लिए मेरे पति जैसे सैनिक जान की बाज़ी लगायेंगे?

मेरी जैसी युवतियां विधवा होंगी?

बच्चे अनाथ हो जायेंगे?

क्या यह वही लोग हैं

जो टीवी पर चर्चा करेंगे?

सेना की चुस्ती पर प्रशनचिंह लगायेंगे

और बुद्धिजीवी कहलायेंगे?

क्या यह वही लोग हैं

जो अचानक देशभक्त हो जायेंगे

पर शहीद के घर को कुत्ते के लिए भी निम्न पाएंगे?

क्या यह वही लोग हैं

जो २६ जनवरी, १५ अगस्त पर थीम पार्टी करेंगे

जाम से जाम टकरायेंगे

पर परेड देखना समय ज़ाया करना बताएँगे?

क्या यह वही लोग हैं

जो हिन्दी में बात करना गंवारू बताते हैं,

शिकायत करते हैं,

पर हल नहीं बनना चाहते हैं

क्या यह वही लोग हैं

जो पहले मौके पर अमरीका उड़ जाना चाहते हैं,

नुक्कड़ पर खड़े हो लड़कियाँ छेड़ते हैं

पर उनका पब में जाना

संस्कृति के विरुद्ध पाते हैं

उत्तर मैं जानती हूँ,

भगत सिंह की कुछ पंक्तियाँ याद करती हूं

"देश अब भी गुलाम है,बाद में भी गुलाम होगा

भेद होगा तो बस चमड़ी के रंग का होगा"

आज फिर क्रांति की जरुरत है,

पहले गोरे निकाले थे

अब गद्दारों को निकालने की जरुरत है

Friday, February 27, 2009

To my students…with love!!!


“To teach is to learn twice – Joseph Joubert”


I remember filling up my B.Ed form on a very dramatic note “Teaching and me. No way. I don’t want to be a teacher” .Through out my life till then I had never imagined myself as a teacher. Yet everyone around me convinced me how teaching is the most suitable job for an Army officer’s wife. I remember sitting in my B.Ed classes and wondering “Do I belong here. Is this what I want to do?” Well the course got over and I waited for two long years to finally apply for a job and to my surprise even got it at Army School, Ahmedabad.

I can never forget that first day when I stood in a classroom. So many pairs of eyes staring at me, judging my each move, weighing my each word. I had a very difficult task at hand, not only I was going to teach children of VIII,IX,X but I was going to teach them a subject which they hate unanimously – Social Studies !!! Can’t forget my disappointment when I asked how may of you like social studies and only two or three students raised their hands in response in each class. I would be lying if I say I enjoyed right from the word Go but yes slowly I started looking forward to my classes, to every new morning. I realized what great influence teachers are on these young minds, sometimes more than their own parents. I realized how a teacher and make or break a child’s interest in a particular subject. I realized that a profession that I always regarded as unglamorous, casual, boring and unchallenging is actually the most dynamic, testing and exciting.

I started connecting to my students, started loving them, started feeling pain and joy for them…I stretched the limits of my subject outside the purview of textbooks and helped them realize that social studies is not just about long difficult answers, innumerable history dates, difficult political concepts or strange geographical terms…it is much more than that, it’s a subject that’s most close to our everyday life. I remember lecturing my each class when I didn’t find many of them present for Independence Day celebrations because it was important for them to realize that the only relation they have with freedom movement is not that they have to read a history chapter about it, that when they wish they get all their rights they also have to be ready for corresponding duties.

Honestly I always wanted to be a civil servant as I thought that’s the only way I can bring change to this country but how wrong I was. I think teachers are the real reformers of a nation. Years after years relentlessly with their poor pay packages, they strive to develop human resources for a nation. They do not wear a uniform, carry a gun or stand on borders but with that small piece of chalk they write destiny of a country and I feel this act is the greatest act of patriotism. Teaching is a profession where you don’t wait for annual performance appraisals, your performance is rated everyday by your students and they give you a thumb up only when this performance is honest, unadulterated. Though I confessed I never wanted to be a teacher, I now say very proudly that there can be nothing more satisfying than seeing that shine in the eyes of your children when you stand in a class and take a lecture. There can be nothing more sweet than those sweet good mornings with which they welcome you everyday. There can be nothing more fulfilling than the feeling of being a teacher…and this expression of my feelings is for all my students….with love!!!