बचपन मैं सीखा था
राष्ट्रगान हमेशा गाना है,
कुछ भी हो शरीर का एक अंग भी नही हिलाना है
आरती चाहे कभी न गुनगुनायी हो
जन गन मन की तान पर रोम रोम गा उठता है
आज दिल में टीस उठती है
राष्ट्र गान पूछे जाने पर युवा 'वंदे मातरम' बताते हैं ,
बंकिम चंद्र उन्हें बंगाली फ़िल्मों के निर्देशक नज़र आते हैं,
'सारे जहाँ से अच्छा' की एक पंक्ति गाने में भरसक प्रयतन करते हैं,
और इन सब बातों में हमें समय न खोने की सलाह देते हैं
एक दिन फ़िल्म देखने गई थी,
युवाओं के परिचय के लिए
आजकल फ़िल्म से पहले राष्ट्र गान बजाया जाता है
देखा, एक महाशय मोबाइल पर दीन दुनिया की बातों में मशगूल थे
इतने कि उठना तो दूर चुप होना भी भूल गए
पति फौज में हैं और मैं उतनी ही फौजी,
देखा न गया
गान पूरा होते ही महाशय को कुछ ज्ञान दिया
माफ़ी मंगवाई और फ़िल्म चलवाई
बरबस उसी पल दिल में एक सवाल उठा,
आज यदि यह सिनेमा घर ताज बन जाए
तो क्या यह वही लोग हैं
जिनके लिए मेरे पति जैसे सैनिक जान की बाज़ी लगायेंगे?
मेरी जैसी युवतियां विधवा होंगी?
बच्चे अनाथ हो जायेंगे?
क्या यह वही लोग हैं
जो टीवी पर चर्चा करेंगे?
सेना की चुस्ती पर प्रशनचिंह लगायेंगे
और बुद्धिजीवी कहलायेंगे?
क्या यह वही लोग हैं
जो अचानक देशभक्त हो जायेंगे
पर शहीद के घर को कुत्ते के लिए भी निम्न पाएंगे?
क्या यह वही लोग हैं
जो २६ जनवरी, १५ अगस्त पर थीम पार्टी करेंगे
जाम से जाम टकरायेंगे
पर परेड देखना समय ज़ाया करना बताएँगे?
क्या यह वही लोग हैं
जो हिन्दी में बात करना गंवारू बताते हैं,
शिकायत करते हैं,
पर हल नहीं बनना चाहते हैं
क्या यह वही लोग हैं
जो पहले मौके पर अमरीका उड़ जाना चाहते हैं,
नुक्कड़ पर खड़े हो लड़कियाँ छेड़ते हैं
पर उनका पब में जाना
संस्कृति के विरुद्ध पाते हैं
उत्तर मैं जानती हूँ,
भगत सिंह की कुछ पंक्तियाँ याद करती हूं
"देश अब भी गुलाम है,बाद में भी गुलाम होगा
भेद होगा तो बस चमड़ी के रंग का होगा"
आज फिर क्रांति की जरुरत है,
पहले गोरे निकाले थे
अब गद्दारों को निकालने की जरुरत है
इस सदी में लोगों की आत्मा चर्चिल, गांधी, गोलवलकर, लोहिया से नहीं वरन बॉलिवुड का लबादा ओढ़ रही है। आज का वर्ग कैसे हमारे पुराने लोकतांत्रिक मूल्यों को समझ पाएगा। मनोरंजन के नशे ने किताबों को पार्श्व में ठेल दिया है प्रियंका जी। सच है कि वैश्विकरण ने हमें विकास का नया रास्ता दिखाया है। आज जब हमारा मध्यवर्गीय युवा 'गण' लगभग विकसित हो चुका है तो उसे जन-गण-मन के ध्येय ही नहीं पता। आपने कहा कि ये वही लोग हैं जो मौका मिलते ही अमेरिका की उड़ान भर देंगे। आज उन्हें अमेरिकी से उठी हठात मंदी की आंधी का हवाला देकर भी नहीं रोका जा सकता। भारत भाग्य विधाता कहां है उनके लिए?
ReplyDeleteएक अनुरोध है आपसे वर्ड वेरिफिकेशन हटा दीजिए। टिप्पणी देने में परेशानी होती है।
बहुत खुशी हुई आपका लिखी ये कविता पढ़कर। पहली बार बात करने पर जो धारणा आपके बारे में बनी उसे इस कविता ने और मज़बूत बना दिया है। संयोग पर यकीन नहीं है मेरा, लेकिन आज कुछ गहरे तक सोचने को मजबूर करने वाले कुछ विचार पढ़ने का जी किया.. तो अचानक अपने ब्लॉग पर दिया आपका कमेंट दिखाई दिया। लेकिन ये कहे बिना नहीं रह पाउंगी कि कुछ दिनों से जो ज़िंदगी सिर्फ ऑफिस की खिटपिट, दोस्तों की मस्ती, भविष्य के तनावों में मुर्दा सी हो गई थी (ऐसी ज़िंदगी को मैं 'मुर्दा'कहकर बुलाती हूं)... उसे धड़कने का एहसास करा दिया आपने।
ReplyDeleteलेखन के इस सफ़र को थमने मत देना। सांई आपको हमेशा सही रास्ता दे।