Sunday, June 28, 2009

लेते हैं एक छोटा सा "ब्रेक"

मेरे पति का पोस्टिंग आर्डर आ गया था यह तो आप सब को मैं पहले ही बता चुकी हूँ (http://priyankasmann.blogspot.com/2009/06/blog-post_03.html) अब कुछ और बताना चाहती हूँ इस कविता के माध्यम से...

पोस्टिंग आ गई थी
पहले ही बता चुकी हूँ जनाब
कुछ दिन अब न लिख पाऊँगी नई पोस्ट
न ही दे पाऊँगी टिपण्णी और जवाब
पैकिंग अनंत नज़र आ रही है
पसीने और धूल में सनी हूँ मैं
कुछ न लिख न ही पढ़ पाने की बुरी लाचारी है
कुछ दिन और यूँ ही चलने के आसार हैं
दमन ,पुणे रुकते हुए
अहमदाबाद से सिकंदराबाद पहुँचने की दरकार है
वहां जा कर भी जल्द कुछ लिख पाऊं लगता नहीं
अरे बी.एस.एन.एल का ब्रॉडबैंड भी पन्द्रह दिन से पहले मिलता नहीं
बक्सों में बंद गृहस्थी भी फिर से जमानी है
तीसरे माले तक सामान ले जाना भी बड़ी परेशानी है
ऐसा नहीं की मैं कुछ बड़ा साहित्यिक लिखती हूँ
कि बिन मेरे लेखन की दुनिया वीरान हो जायेगी
कुछ दोस्त बन गए हैं
बस उन्ही की कमी कुछ दिनों तक खल जायेगी
दोस्ती ही की बात थी
सोचा गायब होने से बता कर जाना ठीक है
मित्रगण कहीं मुझे भी न भूल जायें इसीलिए लगाई यह तरकीब है
क्या कहते हैं वो टीवी में
"मिलते हैं ब्रेक के बाद "
मज़बूरी में ले रही हूँ यह ब्रेक
स्नेह अपना यूँ ही रखियेगा बरक़रार
ब्रेक के बाद एक बार फिर मिलेंगे हम और आप


Wednesday, June 24, 2009

क्यों एक बलात्कारी को फांसी चढाने की व्यवस्था नहीं है ?

गत पाँच छह दिनों से एक शब्द जिसने सबसे ज्यादा विचलित किया हैं वह है "बलात्कार" । कभी सूरत में मासूम छात्राओं के साथ तो कभी इंदौर में अपने बच्चों का दाखिला कराने गई एक महिला का उसी के पति के सामने बलात्कार,कभी हिमाचल में एक विदेशी पर्यटक के साथ तो कभी दिनरात मेहनत कर अपना पेट पालने वाली एक गरीब नौकरानी के साथ ... सड़क,गाड़ी या आलिशान घर ,एक औरत की अस्मत को तार तार कर देने वाले दरिन्दे हर जगह दिखाई दिए। हद तो तब हो गई जब जुर्म की इस कालिख से निजात दिलाने वाली पुलिस भी इसी कालिख से लिपी हुई दिखाई दी और एक महिला ने दिल्ली में चार पुलिस वालों पर थाने के भीतर किए गए बलात्कार का आरोप लगाया जिसकी अब फोरेंसिक पुष्टि हो चुकी है ..और अभी जब मैं यह लिख रही हूँ तो दिल्ली में एक और महिला के साथ गैंग रेपके ख़बर टीवी पर आ रही है।

जितना दुःख इन घटनाओं का है उतना ही रोष उन लोगों पर है जिनके अनुसार ऐसी घटनाओं की जिम्मेदार महिलाएं स्वयं हैं...शाईनीआहूजा एक सेलेब्रिटी हैं इसलिए उन्हें फंसाया जा रहा है "..."जो महिला पुलिस पर आरोप लगा रही है वह एक कुख्यात सट्टेबाज़ की बीवी है इसलिए पुलिस को फंसा रही है "..."लडकियां ग़लत समय पर ग़लत कपड़े पहन कर घर से निकलती हैं "....शहर के बाहरी इलाके में यूँ जाने की क्या जरुरत थी "।

मैं जानना चाहती हूँ कि कौन औरत हैं जो यह चाहेगी की वह ऐसे घिनौने कृत्य की शिकार हो? कौन औरत होगी जो अपनी इस पीड़ा का ढोल पीटना चाहेगी ?कैसे एक पुरूष की गरिमा हर रूप में बरक़रार है,बलात्कारी भी है तो कुछ लोगों की सहानुभूति मिल जाती,कुछ दिन बाद उस ke नाम की बदनामी भुला दी जाती है॥शादी ब्याह भी यह कह कर हो जाते हैं की लड़का था, लड़कों से तो ऐसी गलतियां हो जाती हैं पर क्यों एक औरत के लिए उसी गरिमा को बचाना हर पल का संघर्ष..क्यों सब कुछ खो देने के बाद भी उसी को सवालों के जवाब देने पड़ते हैं और क्यों आजीवन उसे इस कड़वी सच्चाई से रूबरू करवाया जाता है और सारे सपने कहीं खो जाते हैं ।

क्यों एक अभिनेता की इज्ज़त है पर उसकी गरीब नौकरानी की नहीं ? क्या एक महिला इसलिए खंडित की जा सकती है ,उसके दर्द पर इसलिए सवाल लग जाते हैं क्योंकि उसका पति सट्टेबाज़ है ...एक बलात्कारी कैसे सुनसान या भीड़ में दिन या रात में कहीं भी कभी भी बेखौफ घूम सकता है पर एक शरीफ बाल बच्चेदार दंपत्ति को यह आजादी नहीं है ।

जवाब देने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है वह कह देते हैं कि कार्यवाही ho रही है ,जल्द एक्शन लिया जाएगा ..पर यह जल्द आएगा कब? ऐसा तो नहीं कि यह समस्या दो दिन पहले ही उत्पन्न हुई है तो फिर कमी कहाँ है कि ऐसे कृत्यों से समाज को निजात नहीं मिल पा रहा है अलबत्ता सच्चाई यह है कि हर दिन के साथ इस में बढोतरी हो रही है । कारण है पुलिस और न्यायपालिका दोनों का ही उदासीन रवैय्या । गवाह तो अमूमन ऐसे केस में होते हीं नहीं हैं और जहाँ पैसे से हर चीज़ खरीद ली है तो सबूत क्या बड़ी बात है । यदाकदा जब कोई केस कचहरी पहुँच जाता है तो सालों तक घसीटता ही जाता है और हर सुनवाई में प्रश्नों कि जो बौझार पीड़ित महिला को झेलनी होती है उस से उसका सम्मान बार बार छलनी किया जाता है । इक्कादुका केस को छोड़ जहाँ बलात्कार के बाद कत्ल भी हुआ ऐसी बहुत कम घटनाएं हैं जहाँ पुलिस या न्यायपालिका उम्दा तफ्तीश और शीघ्र कठोर सज़ा का ऐसा उदहारण पेश कर पाई हो जो ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगाने में कारगर साबित हो ..भारतीय दंड संहिता के बलात्कार से जुड़ी धाराओं में संशोधन भी बहुत लंबे समय से की जा रही मांगों में से है।

बलात्कार एक औरत कि न केवल देह अपितु मन और आत्मा का भी खंडन है ..मृत्यु के बाद एक व्यक्ति पीड़ा से मुक्त हो जाता है पर बलात्कार मृत्यु से भी ज्यादा दुखदायी है क्योंकि एक पीडीत को इस दर्द के साथ आजीवन रहना पड़ता है । वह देश जहाँ औरत को देवी के रूप में पूजा जाता है उसी देश में औरत मात्र भोग की वस्तु क्यों बन गई है? क्यों उसकी इज्ज़त का मोल इतना कम है ? क्यों हर बार सड़क पर चलते हुए भेड़ियों सी निगाहें हम पर आकर टिक जाती हैं ? क्यों एक बार बस से उतर कर फिर चढ़ने का मन नहीं करता ? क्यों जिसको जैसा मौका मिलता है हमें छु कर निकलता है ..फब्तियां जो कानों में पड़ती हैं उन्हें सुन बहरा हो जाने का मन क्यों करता है ? क्यों सिर्फ़ हमें ही उपदेशों,सीखों सवालों का सामना करना पड़ता है ..क्यों एक पुरूष जैसी ही मेरी स्वतंत्रता नहीं है ?क्यों एक बलात्कारी को फांसी पर चढाने की न्याय व्यवस्था नहीं है ?

Monday, June 15, 2009

क्यों नहीं हम भगत सिंह की बात करते ?

परसों एक सह अध्यापिका से शहीद भगत सिंह के विषय में बात हो रही थी और उनकी एक टिपण्णी से मैं विचलित हो उठी । उनके अनुसार भगत सिंह एक "टेररिस्ट" यानि आतंकवादी थे और इसलिए अहिंसावादी हमारे देश मेंउनकी बात करना अनुचित है। उन्हें अपनी बात कहने की आज़ादी थी सो उन्होंने कह दी पर मुझे नही पता की मैं ज्यादा दुखी किस बात से हूँ - इस से कि उन्होंने भगत सिंह जैसे महान शहीद को आतंवादी कहा ,इस से कि ऐसे बहुत से लोग हैं जो ऐसा ही सोचते हैं या फिर इस बात से कि वह एक अध्यापिका हैं जो आज के युवा वर्ग कि सोच निर्धारित करने में एक अहम् भूमिका रखती हैं या फिर इस बात से कि जैसे आज तक भगत सिंह के व्यक्तित्व को इस देश कि जनता से अनजान रखा गया क्या आगे भी ऐसे ही होगा , क्या इतिहास ही की तरह इस देश की सरकारें और उन सरकारों को चुनने वाले लोग हमेशा इस वीर के बारे में बात करने से जिझकेंगे?

बहुत आसानी से उन्होंने आतंकवादी शब्द का प्रयोग एक देशभक्त के लिए कर दिया और यह तक याद न रखा कि आज इस शब्द के मायने क्या हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसा करने वाली वह पहली हैं ..पहले भी क्रांतिकारियों को आज़ादी मिलने के बाद भी भी आतंकवादी कह कर संबोधित किया जाता रहा है । कुछ साल पहले एक स्टेट बोर्ड कि हिन्दी की पुस्तक में "आज़ाद" को आतंकवादी कि संज्ञा दी गई थी । कहने वालों का तर्क यह है कि आतंकवादी वह होता है जो राज्य की शासन प्रणाली के विरूद्व होता है और अपनी बात मनवाने के लिए हिंसा का सहारा लेता है और यूँ देखें तो भगत सिंह और उनकी नीति इसी परिभाषा पर आधारित थी। मेरा मतभेद निम्न मुद्दों पर है -

१) आज हम आतंकवाद को जैसे समझते हैं उसको ध्यान में रखते हुए क्या लोगो द्वारा चुनी गई प्रजातान्त्रिक सरकार और देश को गुलाम रखने वाली एक विदेशी हुकूमत की "स्टेट" के नाम पर तुलना की जा सकती है। आज आतंकवादी जिस "स्टेट" के विरुद्ध हैं और भगतसिंह जिस "स्टेट" के विरूद्व थे क्या उसमे कोई फर्क नहीं ?

२) आज़ादी की जो परिभाषा आज आतंकवादियों ने तय की हुई है क्या उसकी तुलना भगतसिंह के आजाद भारत के सपने से की जा सकती है ?

३) जेहाद के नाम पर आतंकवादी संगठन जिस तरह मासूम युवकों को बहका कर उन्हें अपना माध्यम बना रहे हैं क्या उसकी तुलना भगतसिंह के "इंक़लाब जिंदाबाद" के नारे से की जा सकती है जो अनेको अनेक युवकों का आज़ादी के संग्राम में युध्नाद बना ।

४) क्या हिजबुल मुजाहीदीन की तुलना "हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिईशन" से की जा सकती है ?

५) जिस तरह आज मासूमों को कभी ट्रेन में तो कभी बस में बम रख कर मारा जा रहा है क्या उसकी तुलना "सौन्डर्स" को उसके सही अंजाम तक पहुचाने से की जा सकती है ?

यह सब तुलनाएं नहीं की जा सकती और जो यह तुलनाएं कर सकता है उसके भारतीय होने पर मेरा पूरा संदेह है । यदि यह तुलनाएं नहीं की जा सकती तो फिर आज के सन्दर्भ में भगतसिंह या उन जैसे अन्य क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहना क्या ठीक है ?जिस आतंकवाद की आग में आज सारा विश्व जल रहा है उसी आतंकवाद का प्रयोग "विश्व भाईचारे " की बात करने वाले भगतसिंह के चरित्र वर्णन के लिए करना क्या ठीक है ?

एक राष्ट्र नायक के लिए ऐसे संदेह और संज्ञाएँ इसलिए हैं क्योंकि यह देश उनकी बात नहीं करता। भगतसिंह देश के पहले कम्युनिस्ट थे और समाज के हर वर्ग के लिए खासकर मजदुर और किसान वर्ग के लिए उन्होंने हक की बात की थी । उन्ही के अनुसार क्रांति केवल बम या पिस्तौल की भाषा बोलना नहीं बल्कि अन्याय पर आधारित मौजूदा कार्य एवं शासन व्यवस्था को बदलना है । वह मानते थे कि राजनैतिक आज़ादी आर्थिक आज़ादी के बिना अधूरी है । यह बहुत शर्म कि बात है कि आज कल के तथाकथित कम्युनिस्ट उस कम्युनिस्ट की बात नहीं करते जिसकी नीतियों में राजनीती या निहित स्वार्थ कि मिलावट नहीं थी ।

भगतसिंह धर्मं और राजनीती के मिश्रण को देश के लिए हानिकारक मानते थे । उनका मानना था कि धर्मं के नाम पर बँट कर हम अंग्रेज़ी हुकूमत को मजबूत कर रहे हैं । यही कारण है कि "सर्व धर्मं सम्भाव" के नाम पर कांग्रेस द्वारा मंत्रो और आयतों का एक साथ उच्चार कराने ,"राज करेगा खालसा" जैसे उदघोश के वह पुरजोर विरोधी थे क्योंकि उनके अनुसार जब तक धार्मिक चिन्हों या प्रतीकों का प्रयोग होता रहेगा तब तक एक आम आदमी ख़ुद को सबसे पहले एक हिन्दुस्तानी कभी न समझ पायेगा। शर्म की बात है कि वह जो सच्चा सेकुलर था और जिसकी धर्मनिरपेक्षता वोट पाने या तुष्टिकरण के लिए नहीं थी ,उस भगतसिंह की बात आज कल की तथाकथित "सेकुलर", "धर्मंनिरपेक्ष".."साम्प्रदायिकता की दुश्मन" पार्टियाँ भी नहीं करती ।

भगतसिंह जातिवाद के सबसे बड़े निंदक थे । यही कारण है कि अपने आखिरी दिनों में उन्होंने एक सफाई करने वाली महिला के हाथ की बनी रोटी खाने कि इच्छा जाहिर कि थी और उस महिला को अपनी माँ के समान आदर देते हुए उस रोटी को "बेबे की रोटी" कहा था। जातिवाद पर राजनेताओं की दो मुहि नीति की उन्होंने हमेशा कड़े शब्दों में निंदा की। मदन मोहन मालवीय जिन्होंने एक सभा में एक सफाई कार्मिक के हाथों माला पहनने के बाद कपडों समेत स्नान कर लिया भगतसिंह की आलोचना से नहीं बच पाए थे। महात्मा गाँधी आजीवन किसी हरिजन की कुटिया की जगह संभ्रांत व्यापारिक घरानों के घरों में रहे और वर्ण व्यवस्था की भी किसी न किसी रूप में वकालत की। आज इन सब को याद किया जाता है पर शर्म और दुःख की बात है कि "दलित","हरिजन" आदि शब्दों पर वोट मांगने वाली पार्टियां जातिवाद के इस सबसे बड़े आलोचक की बात नहीं करती।

भगतसिंह क्रांति को एक बड़ा हथियार मानते थे और उनका मानना था कि केवल बातें करने से काम नहीं चलता। देश के हित में यदि खून भी बहाना पड़े तो हिचकना नहीं चाहिए । राष्ट्रीय सम्मान उनके लिए अमूल्य था और उसे पाने और सुरक्षित रखने के लिए प्राणों कि आहुति देना वह बड़ी बात नहीं मानते थे। दुःख कि बात है कि "आर पर कि लडाई " की बात करने वाली पार्टियां , आतंकवादियों को मुंह तोड़ जवाब देने वाली पार्टियां भी भगतसिंह की बात नहीं करती ।

भगतसिंह की अध्ययन में गहन रूचि थी और इसीलिए वह वैज्ञानिक और दार्शनिक तर्क वितर्कों के हिमायती थे। लेनिन,मार्क्स, फ्रांस और रूस की क्रांति के विस्तृत अध्ययन के कारण ही मानवाधिकार,राजनैतिक अधिकारों के वह हिमायती थे। उनकी यही सोच थी जिसके चलते उन्होंने जेल में भारतीय कैदियों के साथ बुरे बर्ताव के विरोध में आन्दोलन किया था और अन्न -जल तब तक त्याग दिया था जब तक की कैदियों की मांगे मान नहीं ली गई थीं तो फिर क्यों आज महाज्ञाता बुद्धिजीवी मानवाधिकारों के नाम पर कसब जैसे आतंकवादियों की तो बात करते हैं पर उस भगतसिंह की बात नहीं करते जो इन अधिकारों के लिए बंदी होते हुए भी अंग्रेजों से भिड गया था और अपनी उम्र के दुसरे दशक में ही उन लोगों से ज्यादा ज्ञानी था जो सारी उम्र पुस्तकों में निकल देते हैं ।

क्यों नहीं हम भगत सिंह की बात करते ? हम यह बात इसलिए नहीं करते क्योंकि हमारा इतिहास उनकी बात नहीं करता और इतिहास इसलिए बात नहीं करता क्योंकि उसे या तो अंग्रेजों ने लिखा है या इस देश की कुछ राजनैतिक पार्टियों ने - अपने जीवन में भगतसिंह अंग्रेज़ी और ऐसी पार्टियों की नीतिओं के पुरजोर विरोधी रहे और इसलिए यह बहुत अचंभे की बात नही है कि जहाँ इसी इतिहास ने हमें बहुत से "माता" "पिता" तो दिए पर भारत माँ का एक सपूत इतिहास के इन्ही पन्नों में दबा दिया गया। "डोमिनियन स्टेटस " की बात करने वाले लोग देशभक्त हो गए, आज़ादी के नायक होगए और पूर्ण आज़ादी की लडाई लड़ने वाले "कुछ राह भटके नौजवान" बन कर रह गए। अहिंसा इस देश का मूलमंत्र बन गई पर गीत गाते हुए फांसी पर झूल जाने वाले कुछ सरफिरे हो गए। वह जो राजनैतिक रोटियाँ सेकते रहे , ब्रिटिश हुकूमत के दरबारी बन कर रहे महिमा मंडित हो गए पर वह जो निस्वार्थ विदेशी हुकूमत से टक्कर लेते रहे आज़ादी की राह में रूकावट हो गए। जिन्होंने धर्मं के नाम पर देश के टुकड़े करा दिए उनकी मूर्तियाँ लगी हैं हर चौराहे पर और वह जिसने धर्मं ताक पर रख कर उद्देश्य की सफलता के लिए केश तक कटवा दिए ,धर्मं की बात छोड़ दी उसे याद दिलाती हुई एक तख्ती भी मुश्किल से दिखाई देती है।

क्यों नहीं हम बात करते भगतसिंह की ? कैसे २ अक्तूबर और १४ नवम्बर हमें याद रह जाते हैं पर २७ सितम्बर को कोई मोल नही? २१ मई ,३० जनवरी को कैसे हम शोक मना लेते हैं पर २३ मार्च हर साल आने वाली एक तारीख भर है । कैसे इस देश में नेता ,अभिनेता "भारत रत्ना"पा जाते हैं पर भगतसिंह,राजगुरु ,आज़ाद का योगदान किसी को भी इस सम्मान के लायक नहीं लगता ।

यदि इतने ही मामूली थे भगतसिंह तो २० वर्ष के भगतसिंह ५८ वर्ष के गाँधी की लोकप्रियता को टक्कर कैसे दे रहे थे ? गाँधी क्यों फांसी टालने के लिए दबाव बनाने की जगह अँगरेज़ गृह सचिव को भगतसिंह की फांसी के बाद जनसाधारण की भावनाओं को सुनियोजित तरीके से सँभालने की सलाह दे रहे थे ? और क्यों गाँधी के राजनैतिक जीवन में पहली बार ,भगतसिंह के शहादत के एक हफ्ते बाद १९३१ के कराची अधिवेशन में उन्हें काले झंडे विरोधस्वरूप दिखाए गए थे और रोष तब ताक शांत नहीं हुआ था जब तक गाँधी ने भगतसिंह की शहादत पर अपने भाव और शोक व्यक्त नहीं किया था।

पर कैसे उम्मीद की जा सकती है कि यह देश भगत सिंह के बारे में बात करेगा क्योंकि उन्होंने कहा था कि क्रांति के बिना मिली आज़ादी का कोई मोल नहीं रहेगा ,धर्मं जाती के नाम पर मिली आज़ादी को कोई मोल नहीं होगा और आज हर वह बात जिसके वह निंदक थे आज हमारे देश के चरित्र का हिस्सा बन चुकी है - शोषण , जातिवाद, धार्मिक असहिष्णुता ...भगतसिंह ने कहा था एक नए देश का प्रारूप तभी बन सकता है जब आज़ादी क्रांति से मिले और जिस व्यवस्था से हम लड़ रहे हैं वह जड़ से ख़तम कर दी जाए जैसे फ्रांस ,रूस ,अमरीका में हुआ । यदि आज़ादी समझौते पर मिली तो हम इस विदेश हुकूमत का बोझ हमेशा ढोयेंगे और आम आदमी हमेशा यूँ ही गुलाम रहेगा बस शोषण करने वाले उसके शासकों की चमड़ी का रंग बदल जाएगा । क्यों एक ऐसा देश जिसके बन जाने का उन्हें हमेशा डर था उनकी बात करेगा ? क्यों ऐसे शासक जिनको राजनैतिक स्वार्थ की राह में जिस भगतसिंह की नीति अवरोध लगती हो उसी भगतसिंह की बात करेंगे ?

मैं दुखी हो जाती हूँ कि कोई सैनिकों कि बात नहीं करता पर जब यहाँ कोई शहीद भगत सिंह की बात नहीं करता तो एक सैनिक की क्या करेगा। जब हमने उनके बलिदान को भुला दिया ,उन्हें आतंकवादी कह उस बलिदान का तिरस्कार कर दिया तो एक सैनिक उम्मीद ही क्या कर सकता है ।

Wednesday, June 10, 2009

एक सैनिक से साक्षात्कार

कल के लेख ही की एक कड़ी यह कविता है । कविता की शुरुआत एक शेर से करना चाहूंगी जो पापा ने घर पर फ्रेम कर के लगाया था
"उनकी गुरबत पर नहीं है एक भी दीया
जिनके खूं से जलते थे चिराग-ऐ-वतन
जगमगा रहें हैं मकबरे उनके
जो बेचा करते थे शहीदों के कफ़न "


क्यों खड़े हो बर्फीली किसी चोटी
कभी रेगिस्तान की धूल खाते
या घने जंगल के अंधियारे में ?
क्यों आ खड़े हुए हो दंगों में
बाढ़ या भूकंप के गलियारों में ?
पाँच कदम की इस पोस्ट पर
क्यों तुम्हारा दम नहीं घुटता ?
अपने घाव खरोंचों पर क्यों तुम से मरहम नहीं लगता?
क्यों मुट्ठी भर सिक्कों के लिए
अमूल्य अपनी जान को ताक पर रखा है?
क्यों भूल गए
घर का छप्पर है टूटा ,माँ है बीमार
बीवी अकेली है बच्चे को कल तक था तेज़ बुखार
क्यों साल दर साल सामान उठा दर- दर की ख़ाक खाते हो?
कितनी उंगलियाँ हैं तुम पर उठती
अनाचारी ,देश विरोधी हो तुम
तो क्यों सारे देश को अपना घर बताते हो ?
बारूद के ढेर पर खड़े
"बुद्धिजीवियों" की गालियाँ
कभी दुश्मन की गोलियाँ झेलते हुए
क्या थक नहीं जाते हो ?
क्यों नौकरी को नौकरी की तरह नहीं करते ?
क्यों पाँच बजते ही घर न रुख नहीं करते
रविवार क्यों नहीं मनाते
धरने और हड़तालें क्यों नहीं करते ?
तुम्हे छोड़ सब करते हैं
देश रुका है क्या ?
तो तुम अनुशासन, देश धर्म की बातों में क्यों उलझ जाते हो
क्यों देश, देशभक्ति की बातों में दीवाने हुए जाते हो ?
याद रखो अब यह किताबी बातें हैं
आजकल इनका अर्थ नहीं ,कोई इनका मोल नहीं है लगाता
छालों से भरे, गले अपने पैरों को
वर्दी के इन जूतों से कभी निकाल कर देखो
तुम्हे लगता है इनके निशान समय की रेत पर कोई रहने देगा ?
जो थे वही मिटा दिए गए हैं
तो फिर क्यों दिन रात चले जाते हो
किसी के कल के लिए क्यों अपना आज दांव पर लगाते हो ?
क्यों अपने माथे पर सब की तरह
प्रान्त,जाती,धर्म की मोहर नहीं लगाते हो
लगाते तो शायद फायदे में रह जाते
यह मोहरें जब सरकारें बदल देती है
तो शायद तुम भी अपनी बदी बदल पाते
क्यों मिट जाने को तैयार हो ?
शहादत तुम्हारी बस एक मौत बन कर रह जायेगी
सुर्खियाँ तो नेताओं के वादों ,
अभिनेताओं के अंदाज़ के हिस्से ही आएँगी
ज्यादा हुआ तो दो खादीधारी चुनाव को धयान में रखते हुए
तुम्हारे घर हो आयेंगे ,हर न्यूज़ चैनल पर अपना मुह दिखायेंगे
एक मैडल थमा देंगे - मरणोपरांत
उद्घोषक की कुछ पंक्तियों में तुम्हारा असीम साहस सिमट जाएगा
और यूँ देश के कर्णधार अपने हिस्से का काम कर जायेंगे
और तुम ही से दीवाने तुम्हारी विधवा और बच्चे
हर पल से संघर्ष करते हुए
उस मैडल के गर्व और तुम्हारी तस्वीर के साथ
अपना जीवन जीते जायेंगे

इतने क्यों सुन कर भी
उसका चेहरा बेफिक्री से खिल जाता है
यूँ लगता है यह बहस बेकार गई
और मेरे इन सवालों का जवाब
वह सैनिक कुछ यूँ दे जाता है
माँ से जो प्यार होता है बेटा उसका मोल नहीं लगाता
कर्तव्य की राह में कुछ मिलने की आस करूँ
तो कर्तव्य न रह कर वह व्यापार है हो जाता
दुःख होता है कभी कभी
जब नीयत पर मेरी सवाल उठ जाते हैं
कुछ साथी इन बाँहों में जब दम हैं तोड़ जाते
क्या करूँ जज़्बात तो फौलादी हैं पर सीने में दिल भी है धड़कता
निश्चय है मेरा अडीग
यूँ ही कुछ बातों और गोलियों से नहीं है हिल जाता
इसलिए हर दिन हर पल नए कुछ प्रण हूँ मैं कर जाता
नौकरी ही होती तो कुछ और भी कर लेता
यह वर्दी मेरा धर्म है
इसकी आन, देश की शान में कुछ भी कर जाऊँ
इस माटी से बना हूँ
सौभाग्य यदि इसी मिटटी से ही मिल जाऊँ
में वीर तभी कहाऊ
जब देश के काम आऊं

Tuesday, June 9, 2009

अंधराष्ट्रवादी हूँ मैं

आज ब्लोग्वानी पर एक लेख का शीर्षक देख कर आँखें रुक गई "देश की सेना ,देश के खिलाफ"(">http://andarkeebaat.blogspot.com/2009/06/blog-post_09.html)। शीर्षक और लेख दोनों ही देख कर मन रोष से भर उठा ,टिपण्णी कर दी पर दिल फिर भी शांत नही हुआ सो लिखने बैठ गई ।


देश की सेना का देश के खिलाफ होने आरोप लगाया गया है तो यही कहना चाहती हूँ की जब सेना देश के ख़िलाफ़ काम करती है तो पाकिस्तान बनता है , भारत नहीं। यदि सेना कश्मीर में एक लघु पाकिस्तान बनानेमें एक अवरोध के समान खड़ी है तो सेना देश की खिलाफत नहीं देश के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर रही है । इस देश को बनाने के लिए बहुत से शहीदों ने अपने खून से इस मिटटी को सींचा है । अपने प्राणों से देश की रक्षा की है । देश ने इन कुर्बानियों को कितना याद रखा इस पर में जितना कम बोलूं अच्छा है क्यूंकि दिल दर्द से भर उठता है और जब तक ऐसे लेख लिखें जायेंगे मुझे ज्यादा कुछ उम्मीद भी नहीं है । आम जनता को फौज में जाना बेवकूफी लगती है ,बुद्धिजीवियों को सेना मानवाधिकारों की कातिल लगती है , राजनेताओं को सेना की जायज़ मांगों से विद्रोह की बू आती है । देश पर मर मिटना सैनिकों की नौकरी है उस पर इतना शोर शराबा क्यों ..मिल जाएगा एक मैडल । मत बेचारे डाल नहीं पाते इसलिए राजनैतिक समीकरणों पर ख़ास फर्क नहीं पड़ता यही कारण है कि युवाओं के "नेता" आज तक किसी युवा सैनिक का दुःख दर्द पूछने कहीं नहीं गए। काफ़ी कैमरे आसपास थे इसलिए किसी झोपडी का उनके सोने से उद्धार हो गया ,हजारों फीट की किसी सैनिक पोस्ट तो इस बात में भी मात खा गई ।


हाँ तो मैं लेख की बात कर रही थी । वहां प्रश्न उठाया गया की उस सेना की जय जय कार क्यूँ हो जो कश्मीर के हर युवा में आतंकवादी और हर घर को उनकी पनाहगार समझती हो । एक समय था जब पंजाब हिंसा और आतंक के साए में था पर आज उसका नामों निशाँ तक नहीं है और उसका कारण है उस हिंसा की विरूद्व एक जुट होने की वहां के लोगों की इच्छा शक्ति । शायद मेरा यह कहना कुछ लोगों को कड़वा लगे पर कश्मीर के हालात के लिए सेना नहीं ख़ुद वहां के लोग जिम्मेदार हैं । ऐसा लगता है कोई हल नहीं चाहता ,हुर्रियत जब मुंह खोलती है पाकिस्तान की बात करती है , आवाम की उन्हें पुरी शह मिलती है और फिर सवाल यह की एक आम कश्मीरी शक के घेरे में क्यों आता है । कहा गया कि सेना अपने ही नागरिकों पर बन्दूक ताने खड़ी है तो जरा पूछिये वहां जा कर की जब इस देश की मिटटी पर रहते हैं तो विदेशी मुल्क की बात क्यूँ करते हैं ? आप नागरिक नागरिक चिल्ला रहें हैं पहले यह तो पूछिये क्या वह ख़ुद को इस देश का नागरिक मानते हैं । लेख में यह भी लिखा गया कि सेना को बैरकों में वापिस भेजना एक बहुत बड़ी मांग है तो मैं यह याद दिला दूँ कि यदि ऐसा हो गया तो काफ़ी लोग दिल्ली के अपने वातानुकूलित कमरों में बैठ कर सेना पर आक्षेप लगाते हुए लेख नहीं लिख पाएंगे । आज़ादी की साँस और रात की सुकून कि नींद का आप इसलिए आनंद उठा पा रहे हैं क्योंकि कहीं कोई सैनिक रात को जाग रहा है। लेख में यह भी कहा गया की बन्दूक के जरिये लोगो के जीने के हक को छीना जा रहा है तो क्या यही जीने का हक कश्मीरी पंडितों और सिखों का नहीं था ? क्यूँ वह रोटी रोटी को तरस गए और सारे सपने किसी रिलीफ कैंप के टेंट में सिमट गए ?


दिन रात अपनी जान बाजी पर लगाते हुए सैनिक इस देश कि प्रभुता और अखंडता को बचाने की कोशिश कर रहें हैं उन्हें देश के खिलाफ बताया जा रहा है । कैसे मिलेगा इस देश में शहीदों और सेना को सम्मान जब आतंकवाद,देश विरोधी गतिविधियों और उनको सहारा देने वाले लोगों को ह्यूमन राइट्स का चोगा पहना पीड़ित बना दिया जाता है ॥और सेना को बलात्कारी,बन्दूक की भाषा बोलने वाली कहा जाता है जिसके कोई ह्यूमन राइट्स नहीं हैं।


यह सब बातें करने वाले को अंधराष्ट्रवादी करार दिया गया है ..वैसे क्या करें हम उस देश के रहने वाले हैं जहाँ गाँधी नेहरू को महिमा मंडित किया जाता है और सरदार पटेल ,आज़ाद,बोस भगत सिंह का इतिहास के पन्नो में दबा दिया गया है । हम तुष्टिकरण की नीति पर बड़े हुए हैं जो अपने हक की बात करता है उसे सेकुलरिस्म के दुश्मन के नाम से जाना जाता है । हम मांगी हुई आज़ादी देख कर बड़े हुए हैं ,क्रांति जैसे शब्द बस हमारे लिए फिल्मो के शीर्षक हैं ..जब हम १०० करोड़ भारतियों को अनदेखा कर एक विदेशी को इस देश की कमान सौंप सकते हैं तो सेना को देश का दुश्मन भी कह सकते हैं । यदि कुछ लोगों को ऐसे लेख लिख कर लगता है की वह राष्ट्रवादी है तो यकीं मानिये ख़ुद को अंधराष्ट्रवादी कहलाने में मैं ज्यादा गर्व महसूस करती हूँ ।

Monday, June 8, 2009

आओ फिर एक "दिवस" मनाएं

( ५ जून को पर्यावरण दिवस था ,साल भर कोई न कोई दिवस आता रहता है ..पर क्या औचित्य है इन दिवसों का ? क्या हम उनके संदेश को साल भर या जीवन भर अपने जीवन में निहित करने का प्रयास करते हैं ? यही प्रश्न इस रचना से उठाने की कोशिश की है ...)

आओ फिर एक "दिवस" मनाएं
पेडों को धुएँ से घोंट जायें
गाड़ी के हार्न से हाथ न हटायें
दिन भर एसी चलायें
कचरा बाहर फेंकते हुए तनिक न सकुचाएं
पान की पीक से दीवारें सड़कें रंग जायें
पर आज पर्यावरण दिवस मनाएं।
चौबीस घंटे ही की तो बात है
चलो कुछ पौध भेड़चाल में लगायें
हरी एक कमीज़ नारे के साथ पहन खड़े हो जायें
आओ फिर एक "दिवस" मनाएं

मात पिता को "ओल्ड फैशंड" बताएं
"जनरेशन गैप" कह उनके संस्कारों की खिल्ली उडाएं
"नाईट आउट" की मस्ती में माँ की चिंता भूल जायें
फिर उन्हें "इमोशनल" न होने की सलाह दे जायें
हर मांग "माँ बाप का फ़र्ज़ है" कह मनवायें
आख़िर में किसी वृधाश्रम में छोड़ आयें
पर आज मदर्स डे फादर्स डे मनाएं
चौबीस घंटे ही की तो बात है
उन्ही की जोड़ी कमाई से "आर्चीज़" से एक कार्ड ले आयें
भावनाओं के बाजारवाद में अपना योगदान दे आयें
आओ फिर एक "दिवस" मनाएं

देश की कमियाँ निकालने में कुछ टाइमपास कर आयें
चुनाव के दिन छुट्टी मनाएं
टैक्स भरने से ख़ुद को बचाएँ
विदेश जायें ,भले ही वहां रंग भेद के शिकार हो जायें
पर आज स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस मनाएं
चौबीस घंटे ही की तो बात है
टीवी पर एक दिन आने वाली देशप्रेम की फिल्मो से कुछ देशभक्ति उधार ले आयें
भले ही सचे देशभक्तों को भूल जायें
आओ फिर एक "दिवस" मनाएं

अंग्रेज़ी में बात करना "कूल" बताएं
हिन्दी देहाती होने की पहचान बताएं
अपनी माँ त्यज कर दूसरे की माँ को सर आंखों बिठाएं
महादेवी वर्मा ,प्रेम चंद हैं कौन ?
इन प्रश्नों से चौंक जायें
पर आज हिन्दी दिवस मनाएं
चौबीस घंटे ही की तो बात है
हिन्दी हिन्दी चिल्लाएं
हिन्दी महत्ता पर कुछ वाद विवाद प्रतियोगिता कराएं
आओ फिर एक "दिवस" मनाएं

औरतों को एक चीज़ मान जायें
अस्तित्व का मजाक उडाएं
काबलियत पर उनकी प्रश्नचिन्ह लगायें
औरत हो कर भी औरत को प्रताडित कर जायें
पैदा होने से पहले लड़किओं को मार आयें
पर आज महिला दिवस मनाएं
चौबीस घंटे ही की तो बात है
एक मोर्चा निकाल आयें
महिला आरक्षण बिल का वादा दोहराएं
आओ फिर एक "दिवस" मनाएं

आओ एक दिन की जागरूकता दिखाएं
साल भर चाहे वही गलतियां दोहराएं
उस दिवस पर किए वादों को भूल जायें
सामान्य ज्ञान परीक्षा हो तो बस इन तारीखों को याद कर के जायें
सब "फैशन" है ,"सीरियसली" कौन मानता है
चलो हम भी थोड़े "फैशनेबल" हो जायें
आओ फिर एक "दिवस" मनाएं

Friday, June 5, 2009

नीरज



( नीरज को दोस्त कहना मुझे ज्यादा भाता है पर जो रिश्ता है उसके बनिस्बत कहूँ तो मेरे पति हैं । दो दिन पहले की बात है नीरज ने मुझे मजाक में कहा "जब देखो लिखती रहती हो ,कभी मुझ पर तो कुछ नहीं लिखती"..उसकी आदत है की ऑफिस से आ कर एक बार मेरे ब्लॉग की जरुर देखता है। उन आंखों में जब प्रशंसा और गर्व देखती हूँ तो एक बार फिर कलम उठाने की प्रेरणा मिलती है ..आज की यह रचना मेरी उसी प्रेरणा के लिए है ,मेरे सबसे अच्छे दोस्त के लिए है ..शायद यह सरप्राईज़ अच्छा लगे !!!)

तुम कहते हो तुम पर कभी क्यों नहीं लिखती
कैसे लिखूं ?
कभी शब्द तो कभी पंक्तियाँ ही पूरी नहीं पड़ती
तुम से अपने रिश्ते पर लिखना आसान नहीं है
बस विवाह तक ही इसकी सीमा और सार नहीं है
अब तो जीवन ही तुम संग लिख दिया है
कागज़ पर कुछ लिखूं तो यूँ लगे
भावनाओं को शब्दों में जकड दिया है
आज तुम्हारे लिए कलम उठाई है
क्या वर्णन से न्याय हो पायेगा ,यह भी कठिनाई है
तुम वह आँखें हो जिनसे हूँ देख पाती
पंख जिनसे नित नई उड़ान हूँ भर जाती
रंग जिनसे जीवन का हर इन्द्रधनुष बना है
रौशनी जिस से गुम राहें हूँ ढूंढ़ पाती
तू आइना है
तुझमे देख श्रृंगार अच्छा लगता है
आइना जो सच और गलतियों से मुझे रूबरू करता है
तुम शब्द हो जब निशब्द हूँ हो जाती
गीत जिस पर बरबस नाच जाती
तुम स्वपन हो
स्वपन की सच्चाई भी
कोमल कभी कठोर
कभी कड़वे कभी मीठी मिठाई भी
तुम दोस्त हो
तुमसे कुछ कहते दिल नहीं जिझकता
तुम हर राज़ में शामिल हो
आँगन में तुम्हारे मेरी खुशी तो कभी आंसू का मेला है सजता
निस्वार्थ हो तुम
शर्तें नहीं लगाते हो
जैसी हूँ मैं मुझे वैसे ही अपनाते हो
सफलता में मेरी अपनी सफलता देख पाते हो
मेरे ऊपर कदम रख आगे नहीं बढ़ जाना चाहते हो
तुम कभी माँ कभी पिता
कभी बहन कभी सहेली हो
धीर गंभीर तो कभी चंचल अठखेली हो
दामाद नहीं तुम बेटे हो
छोटे बड़े सब के चहेते हो
करवा चौथ का हर व्रत साथ रखते हो
नारी के सम्मान की , बराबरी की मुझ से भी ज्यादा लडाई लड़ते हो
तुम्हे देखती हूँ तो अपनी किस्मत पर फ़क्र होता है
कल से ज्यादा और कल से कम
हर दिन तुम्हारे लिए प्रेम और आदर बढ़ता है
उपमाएं तो और भी दे दूँ तुम्हे कई
पर तुम वह "नीरज" हो जो नित दिन मेरे मन सरोवर में खिलता है

( जब हमारा विवाह हुआ था तो मैं २१ की और नीरज २४ साल का था ..अब सात साल बीत चुके हैं और ऐसा लगता है जैसी मैं इन सालों में नीरज के साथ बड़ी हुई हूँ... पढ़ाई या करियर ,सच यह है की मेरे लिए मुझ से भी ज्यादा सपने नीरज ने देखे हैं । सामाजिक मान्यताओं को उन्होंने मेरे सामने कभी तरजीह नहीं दी इसलिए मुद्दा शादी के बाद लगभग ५ साल तक पढ़ाई करने का हो या फिर संतान के लिए सबके विरुद्ध जा कर रुकना, नीरज ने हर मोड़ पर दोस्त की तरह साथ दिया ... यदि मैं कहती हूँ कि विवाह बाद मैंने अपना अस्तित्व खोने नहीं दिया तो उसके लिए मुझ से ज्यादा श्रेय नीरज को जाता है ..)

Wednesday, June 3, 2009

सुनो पोस्टिंग आर्डर आया है

एक बार फिर नई पोस्टिंग (ट्रान्सफर) का फरमान आ गया है ..माँ हमेशा खीज जाया करती थी जब मैं कहती थी फौजी से ही शादी करुँगी ,मेरे पिता सेना में नहीं जा पायें उसका बड़ा कारन वहीं थीं ..कहती थी जिंदगी भर खाना बदोशों की तरह समान ढोते हुई घूमेगी। आख़िर में होना तो वही है जो विधि को मंज़ूर होता है तो मेरा गठ्जोडा भी एक फौजी के साथ ही जा कर जुड़ गया वह अलग बात है की माँ भी तब काफ़ी उत्साहित थीं । लगभग सात साल बीत चुके हैं और इन सात सालों में अपना समान कमसकम पाँच बार समेट चुकी हूँ ..गृहस्थी शुरू की थी तो पाँच बक्से थे ,हर साल के साथ २-३ जुड़ते गए। कल की चिट्ठी के साथ एक बार फिर बक्से बनाने की कवायद शुरू हो गई है । फौजी परिवारों की एक ख़ास आदत होती,देश में जहाँ जहाँ रहते हैं वहां की ख़ास चीजे समान में जुड़ती जाती हैं साथ ही साथ बक्से भी जुड़ते जाते हैं और सेवानिवृत्ति के बाद घर संग्रालय सा दिख्नने लगता तो तो । सात सालों में कारगिल की बर्फीली ऊँचाइयों से हैदराबाद की निजामी तहजीब सब कुछ सेना और उसकी पोस्टिंग ओर्डेरों की बतौलत देख पायीं हूँ ।



पोस्टिंग के बारे में पता चलते ही पुराने प्रश्नों की एक टेप फिर से चल जाती है .."पैकिंग कब शुरू करनी है ? घर कितने दिनों में मिल जाएगा ? ट्रक को कब रवाना करना है ? ओह्हो फिर से बारिशों में समान भेजना होगा ?" इन सवालों से जूझते हुए युद्घ स्तर पर पैकिंग का काम शुरू होता है .."किस बक्से में क्या रखना है ,समान की लिस्ट बक्से पर लगायी है या नहीं "..."रसोई तो आख़िर में ही समेटेंगे, पर इतने शो पीस कहाँ पर, कैसे अटेंगे "... " इतने कपड़े क्यों खरीदती हो और मेरे कम्पुटर और म्यूजिक सिस्टम को तो तुम छोड़ ही दो" । १५ दिन तक घर कबूतर खाना सा लगता है और हम दोनों का फ्यूज़ बात बात पर उड़ता है। किसी तरह से निपटा कर ट्रक लोड करने का भी दिन आता है। अब नीरज मुझे ट्रक वाले से बात नहीं करने देता ,उसे पता है कि रिस्क है क्योंकि चिंता से भरे मेरे प्रश्नों की बौझार उसे काम करने से मना करने के लिए बाध्य कर सकती है ।



चिंता क्यों न होगी ...दिल टूट जाता है जब चीनी मिटटी की पसंदीदा प्लेट टूटी हुई निकलती हैं ..या फिर कांजीवरम साडियों में भीगने के कारण फुफुन्दी लगी हुई होती है । ज्यादातर छावनियों में जाते ही घर मिलना मुश्किल होता या फिर अस्थायी तौर पर कुछ उपलभ्द करा दिया जाता । महीने दो महीने के बाद जब घर मिलता है एक बार फिर बक्से खोल,तिनका तिनका निकाल उस मकान को घर बनाने का काम शुरू हो जाता है और फिर जैसे ही उन् दीवारों में ख़ुद को और उस शहर की अनजानी गलियों में ख़ुद के रास्तों को खोज लेते हें तो दिल्ली से फिर एक पोस्टिंग का पैगाम आ जाता है ।

Tuesday, June 2, 2009

कौन है फेमिनिस्ट ?

ख़ुद को "फेमिनिस्ट" कहने में मुझे हमेशा से गर्व रहा है यह अलग बात है कि बहुत से लोग जब इस शब्द का प्रयोग करते हैं तो लगता है जैसे वह उन औरतों (कुछ पुरूष भी ) की बात कर रहें जो उन के अनुसार सामाजिक कायदे कानून से बगावत करने पर आमदा हैं और इसलिए समाज में उन्हें आदर कि अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए । "फेमिनिस्ट" होना जैसे जाति बाहर होने जैसा है ,समाज के एक वर्ग के लिए इसका प्रयोग गाली के समान है ..याद है की कॉलेज के दिनों में कुछ सहेलियों की माँ कहा करती थीं कि इस की बातें मत सुना करो ,यह दिमाग ख़राब कर देगी । कॉलेज में एक बार एक प्रोफ़ेसर ने कहा था की यदि मैं शादी का एक साल पूरा कर लूँ तो उन्हें चिट्ठी लिख कर जरुर बताऊँ और शाद्दी के बाद भी पति के ऐसे कुछ मित्र हैं जो अपनी पत्नियों को मुझ से ज्यादा वार्तालाप न करने कि सलाह देते हैं ।



तो आख़िर क्या है "फेमिनिस्ट" होना ? ज्यादातर लोग इसे "पुरूष विरोधी" होना परिभाषित करते हैं और मेरा यह लेख उन्ही लोगों के लिए है । नारीवाद या फेमिनिस्म का मतलब पुरूष विरोधी होना नही अपितु महिलाओं एवं पुरुषों के समान अधिकारों कि लडाई है ..लडाई इसलिए क्योंकि अनेक युगों से यह अधिकार महिलाओं को मांगने भर से नहीं मिले हैं । इतिहास गवाह है कि फ्रांस जैसे देश जिन्होंने विश्व को मौलिक अधिकार, प्रजातंत्र,राष्ट्र, स्वंत्रता जैसे कांसेप्ट्स से अवगत कराया ,क्रांति को एक नया रूप दिया वहां भी महिलाओं को मत डालने का मौलिक अधिकार मिलने मैं अनेको अनेक वर्ष लग गए। आज विश्व आधुनिकता , प्रगति के एक नए शिखर पर खड़ा है पर महिलाएं कभी घर में,कभी कॉलेज स्कूलों में,कभी दफ्तर में तो कभी बस कि कतार में अपने वजूद और उसके लिए सम्मान कि लडाई हर पल लड़ रही हैं ।



फेमिनिस्ट होना पुरुषों के लिए नकारात्मक नहीं है अलबत्ता कुछ पुरूष हैं जो बहुत गर्व से ख़ुद को फेमिनिस्ट कहते हैं । सीधे सादे शब्दों मैं इसका मतलब हैं औरतें उन किसी भी शर्तों पर जीवन जीने के लिए बाध्य नहीं हैं जो एक पुरूष पर लागु नहीं होती और हर वह अधिकार जो पुरुषों के लिए समाज ने तय किया है उसमे औरतों कि भी पुरुषों के समान भागीदारी है । विवाह करने का मतलब यह नहीं कि हमें उस उपनाम का त्याग करना हो जिस से हम २३-२४ साल तक जाने गए हैं , ज्यादा रोष तो मुझे तब होता जब कुछ परिवार अपनी पुत्रवधू का नाम तक बदल देते हैं ..ऐसे नियम पुरुषों के लिए तो नहीं हैं ! विवाह का अर्थ तो नहीं कि जिन माता पिता ने हमें जन्म दिया उन्ही से मिलने के लिए हम ससुराल के हर सदस्य के सामने अर्जी दें और उसके स्वीकार होने कि प्रतीक्षा करें ...क्यूँ बेटों के माता पिता दहेज़ जुटाने कि चिंता मैं रात रात भर नहीं जागते ? क्यों एक पुरूष कभी भी अपने करियर से समझौता करने के लिए बाध्य नहीं किया जाता? क्यों एक साधारण सा दिखने वाला पुरूष अपने लिए जीवन साथी के रूप में विश्वसुन्दरी की कामना रखता और क्यों शादी की लिए होने वाले "परेड" में लड़की का नाखून तक जांचा जाता है ?


फेमिनिस्ट होने का अर्थ है की यदि एक पुरूष को अपनी महिला मित्रों से बात करने की स्वतंत्रता है तो एक महिला के लिए पुरुषों से मेल जोल रखना चरित्र का सवाल नहीं बन जाना चाहिए। जब बी.एड कर रही थी तो एक बार कक्षा में पुरूष सहपाठियों द्वारा एक ऐसी लड़की के बारे में विरोध किया गया जो धुम्रपान करती थी ,तर्क था की लड़कियों को यह सब शोभा नहीं देता ..में इस से दोराय नहीं रखती की सिगरेट पीना सेहत के लिए हानिकारक है पर वहां मुद्दा सेहत का था ही नहीं ,मुद्दा था एक औरत को क्या शोभा देता है क्या नहीं ? मेरे व्ही पुरूष सहपाठी लडकियां बैठे रहने पर भी बिना अनुमति लिए सिगरेट के धुएं के झल्ले उडाया करते थे पर लड़कियों को क्या शोभा देता है क्या नहीं पर राय काफ़ी मजबूत थी । कौन तय करेगा की हमारे लिए क्या शोभनीय है क्या नहीं ?धुम्रपान करना हानिकारक है पर यदि इस चेतावनी को अनदेखा करअपनी मनचाही करने का जितना अधिकार एक पुरूष को है उतना ही एक महिला को भी है तो फिर छवि में भेद भाव क्यों?



फेमिनिस्ट होना इच्छा है रात को २ बजे सड़क पर बेकौफ चलने के ? यह इच्छा है मनमुताबिक कपड़े पहनाने की न की यह आरोप सुनाने की कि बलात्कार और छेड़खानी वास्ताव में लडकियां ख़ुद ही आमंत्रित करती हैं ,फेमिनिस्म का मतलब हैं कन्या भ्रूण हत्या के ख़िलाफ़ मोर्चा उठाना और हर लड़की को सिक्षा दिलाना ...नारीवाद प्रतिक है भाषा,कार्य,अधिकार हर रूप में पुरुषों के बराबरी कि जगह पाने कि ..नारीवाद का मतलब है दफ्तर में हमारे कार्य के लिए इज्ज़त से देखे जन बनिस्बत इस बात के कि हम क्या पहन कर आयें हैं या किसके साथ आयें हैं ...



एक बार सड़क पर किसी से गाड़ी को ले कर बहस हो गई जब मैंने कुछ बोलने का प्रयास किया तो महाशय ने कहा में औरतों से बात नहीं करता ..मुझ से रुका न गया और मैंने कहा कि आप एक औरत से शादी कर सकते हैं ,उसके साथ सो कर बच्चे पैदा कर सकते हैं और यहाँ भी आपका काम सोने तक में ही सिमित होता है..उसकी बाद सब जिमेदारी औरत कि होती है ,औरत आपके लिए खाना बना सकती है और रात ३ बजे तक आपका इंतज़ार कर सकती है , औरत आपके लिए वो हर काम करती है जो आपको ख़ुद करना चाहिए पर फिर भी औरत से बात करना आप कि शान के ख़िलाफ़ है ..फेमिनिस्ट होने का मतलब इन सब बातों पर पूर्ण विराम लगाना है ।



बहुत बार हम सबने कुछ बातें सुनी है जैसे कि "लड़कियों कि तरह मत रो", "मर्द बन के दिखा",क्या औरतों कि तरह बातें बना रहा है" और ऐसा बहुत कुछ ..फेमिनिस्म का मतलब है न केवल भाषा में बल्कि आम जीवन में भी इन धारणाओं को तोड़ना है ..कुछ कहावतें और भी है जैसे जोरू का गुलाम इत्यादि ..देखने कि बात यह है कि समाज और उसकी भाषा कैसे दोनों ही महिलाओं के साथ भेद भाव करते हैं। किसी भी कक्षा कि किताब उठा कर देखें आप पाएंगे कि स्त्रीलिंग नाम एवं सर्वनाम अध्यापिका,सेक्रेटरी, घर के काम इत्यादि से जोड़ कर प्रयोग किए जाते हैं वहीं पुलिस अफसर ,सेना, राजनेता, इत्यादि कार्यों के साथ पुल्लिंग नाम एवं सर्वनाम प्रयुक्त होते हैं। क्या कभी किसी ने "बिन्ब्याहा पिता" या "सिंगल फादर" या "कामकाजी पिता " जैसा कुछ सुना हैं वहीं क्यों बिनब्याही माँ ,वर्किंग मदर आदि सुनते हुए हें अटपटा नहीं लगता ..अटपटा नहीं लगता क्योंकि आदत हो गई हैं...



आदत हो गई हैं महिलाओं के लिए ऐसे बर्ताव की भाषा की ,धारणाओं की ..फेमिनिस्म इन्ही आदतों को तोड़ने का प्रयास हैं ...यह प्रयास हैं अपनी पहचान और आत्मा सम्मान को पुनः परिभाषित करने के ,यह प्रयास हैं उन सभी बन्धनों को तोड़ने का जिन्होंने आज तक महिलाओं को उनकी इच्छा और सम्मान के विरूद्व जकड के रखा हैं ..फेमिनिस्म पुरुश्विरोधी नहीं हैं बल्कि एक प्रयास हैं ख़ुद को पहचानने का और उस पहचान को स्वीकृति दिलाने के ..फेमिनिस्म हैं औरत होने में गर्व महसूस करना ..नाकि यह गुनगुनाना की अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो

Monday, June 1, 2009

माँ

(माँ..एक शब्दमें करुना संस्कार का सागर समाया है,भगवान् नहीं हो सकते थे हर जगह तभी माँ को बनाया है

मेरी भी माँ है जिसके पास पंख लगा उड़ जाना चाहती हूँ ,आँखें है नम माँ तुम बहुत याद आती हो ...

आज पुरानी तस्वीरे देखते हुए मम्मी की बहुत याद आई ..कलम उठाई तो उन्ही के लिए कुछ लिखने का प्रयास किया..चाहती हूँ की मम्मी जरुर पढ़ें )


तुम्हारे प्यार ,फटकार, दुलार

कभी डांट कभी मनुहार में पली बढ़ी हूँ मैं

तुमने जन्म दिया तुम्हारा ही प्रतिरूप हूँ मैं


तुम्हारी ऊँगली पकड़ना - चलना

उन्ही को थाम गिर कर उठी हूँ मैं

तुम्ही वह रफ़्तार हो जिस से आगे बढ़ी हूँ मैं

तुमने जन्म दिया तुम्हारा ही प्रतिरूप हूँ मैं


वो आँचल तुम्हारी बाँहों के घेरे

जहाँ दिखे तम में सवेरे

तुम्हारी ही छाया है जिस से ढकी हूँ मैं

तुमने जन्म दिया तुम्हारा ही प्रतिरूप हूँ मैं


तुम्हारी शिक्षा सिद्धांत और बातें

जैसे सभी वेद पुराण हो उन में समाते

तुम ही वह कुम्हार हो जिसके हाथों घड़ी हूँ मैं

तुमने जन्म दिया तुम्हारा ही प्रतिरूप हूँ मैं


तुमसे लड़ना झगड़ना जवाब तक दे जाना

हर बार फिर बात करने की कसम खाना

पर तुम ही वह रस्ता हो जिस पर हर बार वापिस मुडी हूँ मैं

तुमने जन्म दिया तुम्हारा ही प्रतिरूप हूँ मैं


(आज बहुत सी बातें याद रही हैं ..कैसे बचपन में जब मैंने एक फल के झूठे छिलके खाए थे तो मम्मी ने दिनों तक मुझे वही फल खिलाया था ...घर में फ्रिज नहीं था और मैं पड़ोसियों से ठंडा पानी मांगने जाती थी जो माँ को ना गवारा था , सब खर्चों में कटौती कर उन्होंने सबसे पहले मेरे लिए फ्रिज मंगाया था ..एक लहंगा जो उन्होंने अपने हाथ से सिला था ..मेरे गणित के पेपर में रात भर मेरे साथ जगती थी ..हॉस्टल भेज छुप कर रोती थी ..बेटियों से जो भेद भाव की बातें सुनती हूँ वह तो कभी था ही नहीं अलबत्ता कई बार लोग बेटों को उस तरह से बड़ा नहीं करते जैसे हम दोनों बहनों को किया गया ..माँ से सिखा की हमेशा स्पष्टवादी रहो ,बातें लपेट के करना उन्हें आता है उनसे सिखा ...ख़ुद शायद उन्होंने कुछ ही जोड़ी कपड़े बनवाये हो पर हमारी हर जरुरत पुरी की ..याद है मेरी विदाई मैं कितना रोई थी,आज भी रोती हैं जब भी मैं दिल्ली से वापिस आती हूँ...माँ जैसा कोई नहीं होता..शादी से पहले तो शायद इतना समझ में नहीं आता था पर पिछले छेह सालों में उनसे इतना दूर रह कर समझ में आया है ..लव यु माँ !!!)