Tuesday, June 9, 2009

अंधराष्ट्रवादी हूँ मैं

आज ब्लोग्वानी पर एक लेख का शीर्षक देख कर आँखें रुक गई "देश की सेना ,देश के खिलाफ"(">http://andarkeebaat.blogspot.com/2009/06/blog-post_09.html)। शीर्षक और लेख दोनों ही देख कर मन रोष से भर उठा ,टिपण्णी कर दी पर दिल फिर भी शांत नही हुआ सो लिखने बैठ गई ।


देश की सेना का देश के खिलाफ होने आरोप लगाया गया है तो यही कहना चाहती हूँ की जब सेना देश के ख़िलाफ़ काम करती है तो पाकिस्तान बनता है , भारत नहीं। यदि सेना कश्मीर में एक लघु पाकिस्तान बनानेमें एक अवरोध के समान खड़ी है तो सेना देश की खिलाफत नहीं देश के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर रही है । इस देश को बनाने के लिए बहुत से शहीदों ने अपने खून से इस मिटटी को सींचा है । अपने प्राणों से देश की रक्षा की है । देश ने इन कुर्बानियों को कितना याद रखा इस पर में जितना कम बोलूं अच्छा है क्यूंकि दिल दर्द से भर उठता है और जब तक ऐसे लेख लिखें जायेंगे मुझे ज्यादा कुछ उम्मीद भी नहीं है । आम जनता को फौज में जाना बेवकूफी लगती है ,बुद्धिजीवियों को सेना मानवाधिकारों की कातिल लगती है , राजनेताओं को सेना की जायज़ मांगों से विद्रोह की बू आती है । देश पर मर मिटना सैनिकों की नौकरी है उस पर इतना शोर शराबा क्यों ..मिल जाएगा एक मैडल । मत बेचारे डाल नहीं पाते इसलिए राजनैतिक समीकरणों पर ख़ास फर्क नहीं पड़ता यही कारण है कि युवाओं के "नेता" आज तक किसी युवा सैनिक का दुःख दर्द पूछने कहीं नहीं गए। काफ़ी कैमरे आसपास थे इसलिए किसी झोपडी का उनके सोने से उद्धार हो गया ,हजारों फीट की किसी सैनिक पोस्ट तो इस बात में भी मात खा गई ।


हाँ तो मैं लेख की बात कर रही थी । वहां प्रश्न उठाया गया की उस सेना की जय जय कार क्यूँ हो जो कश्मीर के हर युवा में आतंकवादी और हर घर को उनकी पनाहगार समझती हो । एक समय था जब पंजाब हिंसा और आतंक के साए में था पर आज उसका नामों निशाँ तक नहीं है और उसका कारण है उस हिंसा की विरूद्व एक जुट होने की वहां के लोगों की इच्छा शक्ति । शायद मेरा यह कहना कुछ लोगों को कड़वा लगे पर कश्मीर के हालात के लिए सेना नहीं ख़ुद वहां के लोग जिम्मेदार हैं । ऐसा लगता है कोई हल नहीं चाहता ,हुर्रियत जब मुंह खोलती है पाकिस्तान की बात करती है , आवाम की उन्हें पुरी शह मिलती है और फिर सवाल यह की एक आम कश्मीरी शक के घेरे में क्यों आता है । कहा गया कि सेना अपने ही नागरिकों पर बन्दूक ताने खड़ी है तो जरा पूछिये वहां जा कर की जब इस देश की मिटटी पर रहते हैं तो विदेशी मुल्क की बात क्यूँ करते हैं ? आप नागरिक नागरिक चिल्ला रहें हैं पहले यह तो पूछिये क्या वह ख़ुद को इस देश का नागरिक मानते हैं । लेख में यह भी लिखा गया कि सेना को बैरकों में वापिस भेजना एक बहुत बड़ी मांग है तो मैं यह याद दिला दूँ कि यदि ऐसा हो गया तो काफ़ी लोग दिल्ली के अपने वातानुकूलित कमरों में बैठ कर सेना पर आक्षेप लगाते हुए लेख नहीं लिख पाएंगे । आज़ादी की साँस और रात की सुकून कि नींद का आप इसलिए आनंद उठा पा रहे हैं क्योंकि कहीं कोई सैनिक रात को जाग रहा है। लेख में यह भी कहा गया की बन्दूक के जरिये लोगो के जीने के हक को छीना जा रहा है तो क्या यही जीने का हक कश्मीरी पंडितों और सिखों का नहीं था ? क्यूँ वह रोटी रोटी को तरस गए और सारे सपने किसी रिलीफ कैंप के टेंट में सिमट गए ?


दिन रात अपनी जान बाजी पर लगाते हुए सैनिक इस देश कि प्रभुता और अखंडता को बचाने की कोशिश कर रहें हैं उन्हें देश के खिलाफ बताया जा रहा है । कैसे मिलेगा इस देश में शहीदों और सेना को सम्मान जब आतंकवाद,देश विरोधी गतिविधियों और उनको सहारा देने वाले लोगों को ह्यूमन राइट्स का चोगा पहना पीड़ित बना दिया जाता है ॥और सेना को बलात्कारी,बन्दूक की भाषा बोलने वाली कहा जाता है जिसके कोई ह्यूमन राइट्स नहीं हैं।


यह सब बातें करने वाले को अंधराष्ट्रवादी करार दिया गया है ..वैसे क्या करें हम उस देश के रहने वाले हैं जहाँ गाँधी नेहरू को महिमा मंडित किया जाता है और सरदार पटेल ,आज़ाद,बोस भगत सिंह का इतिहास के पन्नो में दबा दिया गया है । हम तुष्टिकरण की नीति पर बड़े हुए हैं जो अपने हक की बात करता है उसे सेकुलरिस्म के दुश्मन के नाम से जाना जाता है । हम मांगी हुई आज़ादी देख कर बड़े हुए हैं ,क्रांति जैसे शब्द बस हमारे लिए फिल्मो के शीर्षक हैं ..जब हम १०० करोड़ भारतियों को अनदेखा कर एक विदेशी को इस देश की कमान सौंप सकते हैं तो सेना को देश का दुश्मन भी कह सकते हैं । यदि कुछ लोगों को ऐसे लेख लिख कर लगता है की वह राष्ट्रवादी है तो यकीं मानिये ख़ुद को अंधराष्ट्रवादी कहलाने में मैं ज्यादा गर्व महसूस करती हूँ ।

29 comments:

  1. एक और अंधराष्ट्रवादी का आपको सलाम, इस बढ़िया लेख के लिये…

    ReplyDelete
  2. देश के प्रति अच्छे भाव। कम से कम सेना को तो बख्श दिया जाय।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

    ReplyDelete
  3. लिखनं वाले को कैसे रोका जा सकता है, सबके अपने-अपने मत हैं क्या करें?

    ReplyDelete
  4. लोकतंत्र की यही आज़ादी है। कुछ लोग इसका फायदा उठाकर अपनी न्यूसेंस वेल्यू क्रिएट करने में लग जाते हैं। अधीर होने की ज़रूरत नहीं है, देश भर की आबादी आपकी ही तरह सोचती है। ये शायद कोई अलगाववादी हो। सेना और कश्मीरियों में वैचारिक मतभेद हमेशा ही रहे हैं। सौ करोड़ के भले के लिए कुछ मानवाधिकारों का दमन तो होता ही है। गेहूं के साथ घुन तो पिसेगा ही।

    ReplyDelete
  5. इस देश में जैचन्द बहुत है, यहां तो देसद्रोही लोग कसाब की भी पैरवी करते मिल जायेंगे, पैसे के लिये तो ये देस तो क्या घरवालों को भी बेच दें

    ReplyDelete
  6. कुछ ना कहने से भी नही हल होती मुश्किले
    जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है

    और यही करते रहे है
    हम फ़िर किसको दोश दे .
    जयचंदो को पाला है हमने
    विरोध करने को टाला है हमने
    फ़िर किसको दोश दे

    ReplyDelete
  7. मैं भी अंधराष्ट्रवादी

    ReplyDelete
  8. प्रियंका जी, मैंने भी वो पोस्ट पढी थी ,,और जो भी जितना लगा ..वही टीप आया..क्या किसे कसूर दें...दरअसल ये समझ समझ का फर्क है...मैं तो सिर्फ ये कहना चाहता हूँ की सलाह देना..दूसरों की कमियाँ निकालना ..और सबसे आसान है किसी पर भी आरोप लगा देना...बहुत हैं ऐसे लोग जो ना जाने किस भावना के वशीभूत होकर ऐसा लिख देते हैं...मगर जहाँ तक इस मुद्दे की बात है तो जाहिर है की जिस का पारिवारिक माहौल faujee वाला है ..वो ज्यादा behtar samjhtaa और samjhaa saktaa है..अच्छा किया जो आपने भी इस vishay पर इस मुद्दे का doosraa pahlu dikhyaa दिया...

    ReplyDelete
  9. बहुत ही अच्छा लेख। बधाई स्वीकार करें

    ReplyDelete
  10. हम भी है आपके समर्थक्।

    ReplyDelete
  11. आपसे पूर्ण सहमति है...इस आवाज को आगे बढ़ने की निहायत ही जरूरत है....आपका प्रयास सराहनीय है....
    सार्थक प्रभावी लेख के लिए बहुत बहुत आभार....

    ReplyDelete
  12. इस लेख के लिये बधाई स्वीकारें और आपके इस लेखन पर हमें नाज हैं. बहुत बेहतरीन और सटीक जवाब लिखा है. बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

    ReplyDelete
  13. प्रियंका जी , आपके लेख से मैं पढ़ते पढ़ते सहमत हो रही थी की एक पंक्ति ने मुझे विचलित कर दिया .....क्या लिखूं सभी को अपने विचार व्यक्त करने की आजादी है । पर लिखे बिना भी नहीं रहा जा रहा । भावुक हूँ इसलिए कुछ बातें ज्यादा प्रभावित कर ती हैं और बिना ज्यादा चिंतन किए जो ह्रदय में भाव उठते है लिख जाती हूँ । आप बहुत चिंतनशील महिला लगती हैं और आपके सारे पोस्ट ही काफ़ी गहन विचार के बाद लिखे गए हैं ऐसा लगता है , फ़िर भी मेरे विचारों से आप सहमत हों, ऐसा प्रयास है । विनम्रता से निवेदन है की आप मेरा मंतव्य समझने की कोशिश करेंगी ।

    हम एक ऐसी महिला को अभी भी नहीं अपना पाये जिसने इसी भारत की धरती पर अपना सुहाग खो दिया जहाँ वो " बहु" बन कर आई और जिसके गुणों की वजह से एक "भारतीय सास ने " अपनी "भारतीय बहु " से ज्यादा महत्व दिया था ! ऐसी महिला जिसने "आपको-आपकी संस्कृति "को अपनाने की कोशिश की जबकि हम में से तो कई "भारतीय स्त्रियाँ "ऐसी भी मिलेंगी जो इस देश में नहीं विदेशमे बसना और विदेशी आचार व्यवहार को ज्यादा पसंद करती है । ऐसी महिला जिसने ऐसा" पद ठुकराया "की जिसे पाने को लोग साम दाम दंड भेद सब आजमाते हैं । ऐसी महिला जिस का स्वपन "मजबूत भारत " को पुनः खड़ा करना है । क्यों ? फ़िर क्यों हम उस महिला को उस "बहु " को "आज भी अपना नाहीं मान पाये "?क्यों ?इसके पीछे कौन सा राष्ट्र वाद है जबकि हमारी संस्कृति में तो" बहु को घर की इज्जत "समझते हैं ! । फ़िर भी मौका पाते ही हम उसी महिला को , विदेशी कह अपमानित और आहात करने से नाहीं चुकते , तो ये कैसा राष्ट्र वाद है जहाँ हम अपनी ही बहु को "विदेशी "कहने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते ?जिस बोफोर्स को ले कर तमाम आरोप उनके पति और उन पर लगते हैं उसी बोफोर्स की वजह से कई फौजियों की जान ही बची थी , याद हैं ना! मेरा भाई भी उनमे शामिल था इसलिए जानती हूँ की जब कोई अपना खतरे में हो और कोई एक तिनका भी जीवन बचा ले तो कैसा महसूस होता है।

    ReplyDelete
  14. thought provoking narration and interesting blog...

    ReplyDelete
  15. बेहद उम्‍दा लेख, आज पहली बार आपके ब्‍लाग पर आया, आपके लेखन ने दोबारा और हमेशा आने की इच्‍छा उदय कर दी है।

    आओं गांधी गान करे, राष्‍ट्रभक्‍तों का अपमान करें


    ऐसा ही कुछ गाना तैयार करना होगा।

    ReplyDelete
  16. @ "ऐसी महिला जिसने ऐसा" पद ठुकराया "की जिसे पाने को लोग साम दाम दंड भेद सब आजमाते हैं । ऐसी महिला जिस का स्वपन "मजबूत भारत " को पुनः खड़ा करना है । "
    छोड़ो भी ये सब राजनीति की बातें। मुख्य चीज 'माल' होता है ठुकराने पर ज्यादा मिले तो अपनाएँ क्यों?

    @ "इसके पीछे कौन सा राष्ट्र वाद है जबकि हमारी संस्कृति में तो" बहु को घर की इज्जत "समझते हैं !"
    इज्जत तो है ही। ऐसे ही थोड़े पूरा भारत नाच रहा है। आप की सहानुभूति इस बहू के साथ कुछ अधिक ही है। बहुएँ और भी बहुत अपमानित हो रही हैं, ज़रा उनकी ओर भी नजरे इनायत हो।

    बोफोर्स की गुणवत्ता पर कोई शिकायत नहीं। हंगामा तो उस अतिरिक्त माल पर है जो कहीं विदेशी बैंकों में पड़ा हमारी तबाही का सामान तैयार कर रहा होगा ।

    ReplyDelete
  17. प्रियंका जी, क्या आप कभी कश्मीर गई हैं? श्रीनगर में एक रोज गुजारिये...शायद आप समझ पाएं कि आपके घर के दरवाजे पर दो परदेसी पूरा दिन खड़े रहें...आपके घर के अंदर झांकते रहें...बहु-बेटियों को देखते रहें...तो कैसा महसूस होता है...

    ReplyDelete
  18. विवेक
    हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
    वे कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती ।
    हमारे घर उजाड़ कर जश्न मनाते हैं लेकिन हमारी एक नज़र भी उनके लिए भारी है।

    जरा दिल्ली और जम्मू के काश्मीरी शरणार्थियों की बस्तियों में भी झाँक आएँ ।

    ReplyDelete
  19. भावना जी ,

    आप की प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद और आपने ठीक कहा देश में सभी को अपने विचार प्रस्तुत करने की आज़ादी है ..आप मेरा लिखा पढ़ती हैं यह बहुत प्रोत्साहन देता है , हाँ यह भी सच है की एक दुसरे को पढ़ते हुए यह जरुरी नहीं की हम कही गई हर बात से सहमत हों।

    देश की जिस बहु की बात आप बात कर रही है उन के देशप्रेम के बारे में मैं केवल यह कहना चाहती हूँ की जब भारत की मिटटी से इतना प्यार था तो नागरिकता लेने मैं इतने वर्ष क्यों लगा दिए ? विवाह होते ही कानूनन नागरिक बनने मैं कोई अड़चन न थी । रही सास के प्रेम की तो सास तो वह बाद में बनीं पहले तो माँ थी , राजनीती और उस की विवशताओं ने जब उन्हें दोनों बेटों के लिए समान माँ नहीं बनने दिया तो सास बन पाना तो और भी दूर था ।

    बोफोर्स की युध्कुश्लाता पर मुझे कोई शक नहीं और न ही इस बात पर की कारगिल में बोफोर्स गन की बड़ी भूमिका थी पर सालों पहले जब खरीद हुई तो क्यों कमीशन लिया गया ? बिना आग धुआं नही उठा करता । आप पद छोड़ने के उनकी बलिदान की बात कर रही हैं तो आप को याद दिला दूँ कि चतुराई से खेली गई राजनैतिक चाल से ज्यादा मुझे उस में कुछ नहीं आता , इतनी ही विवश थीं तो राजनीती से पूरा ही मोह क्यों नहीं भंग कर लिया?

    विवेक जी आप के लिए गिरिजेश जी से कम शब्दों में पूरा जवाब लिख दिया है


    Publish Post Save NowSave as Draft

    ReplyDelete
  20. बेहतरीन विचारोत्तेजक आलेख. सेना के प्रति सम्मान और विश्वास का भाव बहुत जरुरी है.

    ReplyDelete
  21. बहुत बढिया आलेख।बधाई स्वीकारें।

    ReplyDelete
  22. आप सभी के प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ ..अपने विचारों की अभिव्यक्ति में मुझे मिलावट करनी नहीं आती इसलिए हो सकता है काफ़ी पाठकों को कड़वे लगे हों पर सच कहने से डरना कैसा ? वो साथी जो इस स्वर को बुलंद करने में साथ हैं उनकी साथ की उम्मीद हमेशा है ...बहुत से गुणीजन ब्लॉग पर पधारे ,कुछ ने "अनुसरण" करके मेरे शब्दों की उड़ान को नई ऊंचाई दी ..बहुत बहुत धन्यवाद

    ReplyDelete
  23. विवेक जी, घर है तभी उसके अंदर झाँका जा सकता है, उनका क्या जिन्हें घर से बेघर कर दिया? वे तो कहते होंगे कि काश हमारा भी घर होता और उसमें भी कोई झाँकता।
    आपको कोई आपके फ़्लैट या दफ़्तर से निकाल दे तो आप तूफ़ान खड़ा कर देंगे और किसी को उसकी जन्मभूमि से बेदखल कर दिया गया तो एक आह भी नहीं? हो सकता है कि जिस घर में परदेसी झाँक रहे हों वह किसी पंडित या सिक्ख का ही हो!परन्तु उससे क्या? वे तो यूँ मरते हैं जैसे चींटी से भी गए गुजरे हों। कभी चींटियों के मरने पर भी कोई आवाज उठाता है?
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  24. लिंक वाले आलेख को पढ़ कर स्तब्ध हूँ....

    और आपकी लेखनी को सलाम, मैम...

    ReplyDelete
  25. आपकी लेखनी को सलाम

    ReplyDelete
  26. पढ़े लिखे लोग ज़्यादा साम्प्रदायिक होते हैं....

    ReplyDelete

आप का ब्लॉग पर स्वागत है ..आप की प्रतिक्रियाओं ,प्रोत्साहन और आलोचनाओं का भी सदैव स्वागत है ।

धन्यवाद एवं शुभकामनाओं के साथ

प्रियंका सिंह मान